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शिव की भक्ति-शक्ति और उदारता का रूप है ये काँवड़ यात्रा

सुप्रभात
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images (3)भारत भर में शिव भक्तों की यह काँवड़ यात्रा विश्व की सबसे बड़ी यात्रा है। लोग सावन में रिमझिम वर्षा और घनघोर घटाओं के बीच मस्ती के साथ झूमते-गाते हरिद्वार और नीलकंठ तक जाते हैं और गंगाजल लेकर नंगे पाँव पैदल चलकर लौटते हैं। सारा वातावरण केसरिया हो उठा है। काँवर बाँस का वह मोटा व लम्बा डण्डा, जिसके सिरे पर बंधे छींकों में वस्तुएँ रखी जाती हैं तथा जिसे कन्धे पर रखकर वस्तुएँ ढोते हैं। ‘काँवर’ संस्कृत भाषा के शब्द ‘काँवांरथी’ से बना है। जो बाँस की फट्टी से बनाई जाती है। ‘काँवर’ तब बनती है, जब फूल-माला, घंटी और घुंघरू से सजे दोनों किनारों पर वैदिक अनुष्ठान के साथ गंगाजल का भार पिटारियों में रखा जाता है। धूप-दीप की खुशबू, मुख में ‘बोल बम’ का नारा, मन में ‘बाबा एक सहारा।

पहला ‘काँवरिया’ रावण था। श्रीराम ने भी भगवान शिव को काँवर चढ़ाई थी।

काँवरिया
काँवर उठाने वाले भगवान शिव के भक्तों को ‘काँवरिया’ कहते हैं। काँवरियों के कई रूप और काँवर के कई प्रकार होते हैं। उनके तन पर सजने वाला ‘भगवा’ मन को वैराग्य का अहसास कराता है। ब्रह्मचर्य, शुद्ध विचार, सात्विक आहार और नैसर्गिक दिनचर्या काँवरियों को हलचल भरी दुनिया से कहीं दूर भक्ति-भाव के सागर किनारे ले जाते हैं।

काँवर के प्रकार

सामान्य काँवर – सामान्य काँवरिए काँवर यात्रा के दौरान जहाँ चाहे रुककर आराम कर सकते हैं। आराम करने के दौरान काँवर स्टैंड पर रखी जाती है, जिससे काँवर जमीन से न छुए।
डाक काँवर – डाक काँवरिया काँवर यात्रा की शुरुआत से शिव के जलाभिषेक तक लगातार चलते रहते हैं, बगैर रुके। शिवधाम तक की यात्रा एक निश्चित समय में तय करते हैं। यह समय अमूमन 24 घंटे के आसपास होता है। इस दौरान शरीर से उत्सर्जन की क्रियाएं तक वर्जित होती हैं।
खड़ी काँवर – कुछ भक्त खड़ी काँवर लेकर चलते हैं। इस दौरान उनकी मदद के लिए कोई-न-कोई सहयोगी उनके साथ चलता है। जब वे आराम करते हैं, तो सहयोगी अपने कंधे पर उनकी काँवर लेकर काँवर को चलने के अंदाज में हिलाते-डुलाते रहते हैं।
दांडी काँवर – ये भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड देते हुए पूरी करते हैं। मतलब काँवर पथ की दूरी को अपने शरीर की लंबाई से लेटकर नापते हुए यात्रा पूरी करते हैं। यह बेहद मुश्किल होता है और इसमें एक महीने तक का वक्त लग जाता है।

सावन में वैद्यनाथ धाम का महत्व

बैद्यनाथ में रावण ने प्रथम बार जल अर्पित किया था, ऐसा धार्मिक ग्रंथों में उल्‍लेख किया गया है। प्राचीन काल से जल चढ़ाने की परंपरा आज भी कायम है। बैद्यनाथधाम (देवघर) से 105 किलोमीटर दूर सुल्‍तानगंज में गंगा की गोद में एक पहाड़ी पर अजगैबीनाथ (शिव) का मंदिर है। किंवदंती है कि उसी पहाड़ी पर जह्नु ऋषि का आश्रम था। भागीरथ के रथ के पीछे दौड़ती-गंगा पहले-पहल जब सुल्‍तानगंज पहुँची, तब वह उस पहाड़ी पर स्थित जह्नु ऋषि के आश्रम को बहाकर ले जाने पर तुल गई, जिससे जह्नु ऋषि गुस्‍सा हो गए और चुल्‍लु में उठाकर गंगा को पी गए। भागीरथ ने अपने उद्देश्‍य की पूर्ति में, इस दशा को देखकर जह्नु ऋषि की अनेक विधियों से स्‍तुति और प्रार्थना की। फलत: जह्नु ऋषि ने गंगा को अपने पेट से बाहर निकाल दिया। नारदीय-पुराण में इस कथन से सुल्‍तानगंज की यह गंगा काशी की गंगा की तरह पुण्‍यमयी बन गई। यही कारण है कि प्रतिवर्ष लाखों लोग उस कलशतीर्थ से ही कलश में गंगा जलभर कर काँवर पर ढोते हुए, दुरूह रास्‍ते से पैदल चलकर बैद्यनाथधाम जाते हैं। और वहाँ शिव पर गंगा जल चढ़ाकर अक्षय पुण्‍य लूटते हैं। रावणेश्‍वर महादेव के बारे में पद्मपुराण के पंचम अध्‍याय में स्‍वयं ब्रह्मा जी ने कहा है कि अन्‍य स्‍थलों पर किए गए पापों का क्षय गंगा के पवित्र जल में स्‍नान करने से होता है, तीर्थों में किए गए पापों का क्षय काशी में होता है और काशी में किए गए पापों का क्षय बैद्यनाथ के दर्शन से होता है।

जल उठाने से पहले प्रत्‍येक काँवरिया इस श्‍लोक का पाठ करते हैं –
कामदं कामलं विध्मि कामंर शिवाधामदा।
नापर कामदा दत्‍य त्रैलोक्‍य स चराचरे।।

यात्रा के नियम
काँवर ले जाने वाले काँवरियों को कुछ आवश्‍यक नियमों का पालन बड़ी कड़ाई से करना पड़ता है। जैसे काँवर से काँवर न टकराये, सो कर उठने पर स्‍नान के उपरांत ही काँवर को स्‍पर्श करें, किसी काँवरिये को बाएँ छोड़ कर आगे न बढ़ें आदि। यात्रा के दौरान किसी प्रकार का व्यसन न करना, काँवड़ को किसी भी स्थिति में जमीन पर नहीं टिकने देना, नंगे पैर चलना और घर में साग-सब्जी में छौंक न लगाना आदि।

सबकी एक ही जाति है- काँवड़िया
जो भी काँवड़ यात्रा का यात्री है, वह इस भक्ति अभियान में सिर्फ काँवड़िया है और कुछ नहीं। ‘हर-हर, बम-बम’ के साथ भोले बाबा की जय-जयकार करता यह जनसमूह स्वतः स्फूर्त होकर सावन का महीना प्रारंभ होते ही ठाठें मारता चल पड़ता है। काँधे पर काँवड़ उठाए, भगवा वस्त्र पहने, कमर में अंगोछा और सिर पर पटका बाँधे, नंगे पैर चलने वाले ये लोग देवाधिदेव शिव के समर्पित भक्त हैं। इनमें सब जातियों, सब संप्रदायों और सभी उम्र के लोग शामिल हैं। इसमें गरीब-अमीर, अगड़े-पिछड़े, छोटे-बड़े, ऊँच-नीच सब एकरस हो उठते हैं।

वैद्यनाथ धाम में कांवरिए सभी स्थानों से आते हैं. हरियाणा, पंजाब तथा दिल्ली से काँवरियों की भीड़ लगी होती है. इन काँवरियों की सेवा के लिए जगह-जगह पर विश्राम शिविर लगाए जाते हैं. यहाँ कांवरिए विश्राम करने के बाद आगे बढ़ते हैं. विश्राम शिविरों में काँवरियों के लिए बडी़ संख्या में सेवादार होते हैं. लंगर तथा प्रसाद बनाने के लिए हलवाई का इन्तजाम होता है. चिकित्सा के सभी प्राथमिक वस्तुएँ इन शिविरों में उपलब्ध होती है. काँवरियों की सेवा के लिए लोगों ने समितियाँ भी बनाकर रखी है. हरिद्वार से जुड़ने वाले हर राजमार्ग पर काँवरियों का आना-जाना लगा रहता है. रास्ते में “बम-बम” की गूँज सुनाई देती रहती है.

काँवड़ है क्या?
यह जीव का ब्रह्म से मिलन है। ‘क’ ब्रह्म का रूप है और ‘अवर’ जीवन के लिए प्रयुक्त होता है। ‘क’ में अवर की संधि करेंगे तो कावर बनेगा। यही कावर उच्चारण दोष के कारण पहले काँवर और फिर काँवड़ बन गया।

‘काँवड़ के ये घट दोनों ब्रह्मा, विष्णु का रूप धरें।
बाँस की लंबी बल्ली में हैं, रुद्र देव साकार भरे।’

इस यात्रा को देखकर लगता है कि शिव की भक्ति सबसे सस्ती है, बस जल से ही प्रसन्न हो जाते हैं भोलेनाथ। जल चढ़ाओ और मनोकामना पूरी करो। अब भला इतना सस्ता सौदा और कहाँ मिलेगा? गंगाजल भरो और लाकर अपने निकट के किसी भी शिवालय में श्रद्धापूर्वक अर्चन कर लो, बस हो गया बेड़ा पार। शिव भोले भंडारी हैं, वे सबका ध्यान रखते हैं, वे औघड़ दानी हैं ।

शिव पर जल चढ़ाने की हमारी परंपरा बहुत पुरानी है। सागर मंथन की कथा के एक प्रसंग में काँवड़ के प्रादुर्भाव का ज्ञान होता है। कहते हैं, सागर मंथन से निकले चौदह रत्नों में हलाहल विष भी था। बाकी चीजों पर तो सुर-असुरों ने लेन-देन में सहमति कर ली, किंतु हलाहल का क्या हो? अंततः यह देवों के हिस्से में आया। आया तो इसे कौन संभाले कौन पिए, कौन धारण करे? हलाहल की ज्वाला की लपटें अपनी तीक्ष्णता दिखाने लगीं। विष्णु तो इसमें ऐसे झुलसे कि उनके चेहरे का रंग ही काला पड़ गया और उन्हें श्याम सुंदर नाम दिया गया। हृषिकेश (विष्णु) के आग्रह पर भोले बाबा ने हलाहल को ले लिया औऱ जब वह उसे गटक ही रहे थे कि पार्वती ने टोका-टोकी कर दी और वह कंठ में ही अटक गया। शिव को नया नाम मिल गया-‘नीलकंठ।’

महाभयंकर विष को कंठ में धारण कर शिव छटपटाने लगे और तन-मन को शांत करने के लिए हिमालय की ओर भागे। उधर देवों की सेना भी मटकी में जल भर-भर कर शिव को शांत करने में जुट गई। कितना जल चढ़ा होगा, इसका अनुमान नहीं, कितने दिनों में वे शांत हुए होंगे, यह भी पता नहीं। पता तो यह भी नहीं कि उनके भीतर हलाहल की भयंकर ज्वाला अभी भी शांत हुई कि नहीं, पर शिव भक्तों की शिव पर जल चढ़ाने की यह परंपरा आज भी जारी है।

काँवड़ को सजाने और सँवारने में भी काँवड़ियों में बड़ी प्रतिस्पर्धा है किसकी काँवड़ कितनी आकर्षक है। जगह-जगह काँवड़ियों की सेवा के लिए लगे सेवा-शिविर भी लग जाती हैं। यात्रा प्रारंभ हुई नहीं कि सेवादार मुख्य स्थलों चौराहों, तिराहों व दोराहों पर अपने तंबू लगा लेते हैं, जहाँ काँवड़ियों के लिए खाने-पीने, बैठने व आराम करने की सुविधाओं के साथ काँवड़ की जमीन से ऊपर रखने के लिए बाँस की बल्लियों के मचान व बैरीकेटिंग भी हैं।

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